भारत में जब-जब धर्म और समाज में कोई विकृति आई है और जन-जीवन अवनति के मार्ग पर चला है तब-तब इस पुण्य भूमि पर कोई न कोई विभूति अवतरित हुई है। ऐसी ही विभूतियों में स्वामी दयानन्द का नाम भी शामिल है। उन्होंने समाज में व्याप्त अज्ञान रूपी अन्धकार को दूर करने में अहम भूमिका निभाई। उन्होंने राष्ट्रभाषा हिन्दी को मान्यता देने के लिए स्वभाषा और जाति के स्वाभिमान को जागृत किया।
स्वामी दयानन्द का जन्म उस समय हुआ जब देश चारों ओर से संकटों और आपदाओं से घिरा हुआ था। हमें विदेशी शासकों ने अपने शिकंजे में कस सब प्रकार के अधिकारों से वंचित कर अमानवीयता के वातावरण में जीने के लिए बाध्य कर दिया था। स्वामी दयानन्द जी ने मानवता विरोधी गतिविधियों का गम्भीरतापूर्वक अध्ययन कर उन्हें जड़ से उखाड़ फेंकने का दृढ़ संकल्प लिया।
स्वामी दयानन्द जी का जन्म गुजरात राज्य के मौरवी के टंकारा नामक ग्राम में 1824 को हुआ था। उनके पिता का नाम कर्षण जी था। वे गांव के बड़े जमीदारों में शामिल थे। स्वामी दयानन्द जी का बचपन का नाम मूलशंकर था। बालक मूलशंकर बचपन से ही मेधावी थे। स्वामी जी की प्रारम्भिक शिक्षा संस्कृत विषय में हुई। 14 वर्ष की आयु में ही मूलशंकर को बहुत से शास्त्र व ग्रन्थ कंठस्थ हो चुके थे।
इनके पिता शैव धर्म के उपासक थे। एक दिन शिव रात्रि को मूलशंकर अपने पिता के साथ शिवालय गये। रात भर वहां चले जागरण में उन्होंने शिव की महत्ता को सुना। जागरण के दौरान कई लोग सो गये लेकिन मूलशंकर जागरण सुनता रहा। इस दौरान उन्होंने देखा कि एक चूहा शिवजी की मूर्ति पर चढ़ी मिठाई खा रहा है। इस घटना को देख मूलशंकर के मन में कई शंकायें उत्पन्न हुई। इन शंकाओं का समाधान उनके पिता द्वारा किया गया लेकिन वे अपने पिता की किसी भी बात से संतुष्ट न हो सके। इसके कुछ दिन बाद ही उनकी चौदह वर्षीय बहन की मृत्यु हो गयी। इन दोनों घटनाओं ने मूलशंकर के मन पर गहरा प्रभाव डाला। और वे वैराग्य की ओर उन्मुख हो गये।
मूलशंकर की यह दशा देख उनके घरवालों ने उनके विवाह की तैयारी शुरू कर दी। विवाह की तैयारियों के दौरान ही एक दिन घर से निकलने के बाद उन्होंने अहमदाबाद पैदल ही आये। यहां रहने के कुछ दिन बाद उन्होंने बड़ौदा में रहे। दो वर्ष भ्रमण के बाद मूलशंकर की भेंट दंडी स्वामी पूर्णानन्द सरस्वती से हुई। उन्होंने मूलशंकर को विधिपूर्वक संन्यास दिलाया। इसके बाद से उनका नाम मूलशंकर की जगह दयानन्द सरस्वती हो गया।
इसके बाद स्वामी दयानन्द विभिन्न तीर्थ स्थलों, धार्मिक स्थानों और पूज्य क्षेत्रों में भ्रमण करते हुए मथुरा पहुंचे। यहां स्वामी जी का सम्पर्क महान योगी और सन्त स्वामी विरजानन्द जी से हुआ। स्वामी दयानन्द ने स्वामी विरजानन्द जी को अपना गुरु बनाया और उनके नेतृत्व में उन्होंने 35 वर्षों तक वेदों का अध्ययन किया। स्वामी विरजानन्द जी अपने शिष्यों से भेंट में लौंग लिया करते थे। किन्तु उन्होंने स्वामी दयानन्द से गुरु दक्षिणा के रूप में आदेश दिया कि अब जाओ, और देश में फैले हुए समस्त प्रकार के अज्ञान रूपी अन्धकार को दूर करो। गुरू आदेश को स्वीकार कर दयानन्द जी अपने उत्तरदायित्व का निर्वहन करने के लिए देश के भ्रमण पर निकल गये।
देश के विभिन्न भागों में भ्रमण करते हुए स्वामी जी ने मुम्बई में प्रथम आर्य समाज की स्थापना की। अन्धविश्वासों और रूढ़ियों का विरोध करते हुए उन्होंने मूर्तिपूजा का विरोध किया। स्वामी जी ने एक महान और सर्वप्रथम धर्म ग्रन्थ 'सत्यार्थ प्रकाश' की रचना की। इसके अलावा 'ऋग्वेद की भूमिका', 'व्यवहार भानु' तथा 'वेदांग प्रकाश' नामक उनके श्रेष्ठ ग्रन्थ हैं। स्वामी जी को धर्म के ठेकेदार कहलाने वाले कुछ लोगों जिन्हें अपनी धर्म रूपी ठेकेदारी खत्म होती नजर आ रही थी उन्होंने स्वामी जी की हत्या की कई साजिशें भी रचीं। इसी साजिश के तहत उन्हें जब वह जोधपुर नरेश के यहां गये थे तो उन्हें एक वेश्या ने षड्यंत्र रच दूध में जहर पिला दिया। जिससे उनकी मृत्यु हो गयी।
स्वामी जी ने ब्रह्मचर्य पर बल दिया। उन्होंने लड़के के लिए विवाह की आयु 25 वर्ष तथा लड़की को विवाह योग्य 16 वर्ष बाद बताया। स्वामी जी बालविवाह के कट्टर विरोधी थे। उनका कहना था कि इससे सामाजिक पतन तो होता ही है साथ ही इसे विधवापन का मूल कारण भी बताया। उनका कहना था कि बाल विवाह शक्ति हीनता को जन्म देता है जिससे कम उम्र में मृत्यु हो जाना स्वाभाविक है। स्वामी जी ने विधवा विवाह व पुनर्विवाह का समर्थन किया।